अबहीं बहुत कहे के बा / अविनाश चन्द्र विद्यार्थी
सुनि पवलीं हाँ अबहीं कहवाँ, अबहीं त बहुत कहे के बा।
गूँजत आइल बा राग जवन
मानीं, ह साँच बिहाग तवन
सुर सूतल जहाँ भैरवी के
उचरी तहवाँ अब काग कवन ?
खरकल ना एको पीपर पात, पवन उनचास बहे के बा।
रगवा पग के कठुआइल बा
ठगवा मग में हहुआइल बा,
गाँथी कइसे मोती लरिया
तगवा मन के अझुराइल बा
टुसिआई ठुँठी पाकड़िओ, कुछ दिन पतझार सहे के बा।
उड़ि के अइसन रहिया धइलीं
कलियन के संग भँवरा भइलीं
मधुआइल नयना भरमबलसि
माया का नगरी में अइलीं
निरभेद चदरिया तानीं जनि, सपना के महल ढहे के बा।
के आजु पराती गवले बा ?
जगरम के अलख जगवले बा ?
‘धाव धाव’-कहि के केदो
अनदेखल के गोहरवले बा
जे जागत बा से पावत बा, बस लागल आतु के बा