आग धुधुआता कभी-ना-कभी लहकी / बच्चू पाण्डेय
आग धुधुआता कभी-ना-कभी लहकी,
छार-छार दुनिया के हो जाई अँगना
बहके दीं, कबले ई बाबू लोग बहकी
तखता उलटि जाई, गइहें मठमंगना
मछरी पर बकुला के चलता, चली अभी
बाकिर भेंटा जाई कबहूँ त केंकरा
पतझर उजाड़ी, बगइचा के छली अभी,
लेकिन लहराई बसंतो के अँचरा
जंतर ना मंतर, ना जादू, ना टोना
धूप का देखवला से जिनगी न सुधरी
आँकर तपवला से ना होई सोना
बिअही के परतर ना करी कबो उढ़री
आँखि खोली जागीं सभे, हो गइल भोर
दुनिया के बदलीं, लगा दीहीं जोर