कउआ लाला/ दिलीप पैनाली
कउआ का उड़े पर अपना भइल बहुत गुमान,
हंस से लगाएम बाजी मन में लिहलस ठान।
कहलस कउआ एक दिन, हंस का लगवा जाई,
के बा बीर धरा पर ,जे बाजी हमरा से लगाई।
आजी बाजी बेकार बा सुन कउआ भाई,
बेमतलब में के आपन उड़ देह ठेठाई।
हंसवा रे धमधुसर बारे, जल्दीए थक जइबे,
हमरा संगे उड़े में, तें कबहीं ना पता पइबे।
सुनत-सुनत हंसवो का , क्रोध एकदिन आइल,
सागर पार करेला, दिन एगो रोपाइल ।
दहिने बांवे ऊपर नीचे , कउआ खूब करे,
कोस-भ, उडला का बाद, लागल पियासे मरे ।
बुद्धि बिसरल ,बिश्राम ला खोजे लगलें ठेकाना,
उड़ऽ-उड़ऽ कउआ लाला, हंसवा मारे ताना ।
देह देहलस जबाब, जब सागर में समइलें,
लम्हर बने में कउआ आपन जान गवंइलें।
कहे पैणाली जान-बुझके, मत बनिहऽ घचाक,
देह देख कबो केहू से, जनि करिहऽ मजाक।