कहाँ से पाठक खोजल जा/ रवीन्द्र श्रीवास्तव ‘जुगानी भाई’
पूछत भर में मुँह विचका के, चलि दिहलें ऊ अपने राही
का हो बाबू ! कविता चाहीं ?
सस्ता अउर टिकाऊ कविता, धाँसू मंच जमाऊ कविता
हाथे हाथ बिकाऊ कविता, बड़ा जबर उपजाऊ कविता
सूतल लोग जगाऊ कविता, जल में आगि लगाऊ कविता
रोवत पंच हसाऊ कविता, अँखियन लोर चुआऊ कविता
आयोजक जी कविता चाहीं ?
इनके देखीं सब बा हारल, मोटका चसमा कुरता झारल
कविता के स्तर पर भासन, दुखी मने से आँख क गारल
मंचे पर सुन्नर एक भासन, कवियन के इनकर आस्वासन
‘ब्रह्मानन्द सहोदर कविगन’ कहि के गइलें अपने आसन
हे बतियावक कविता चाहीं ?
खोजत आँखि दुखाये लागल, तँवकत माथ पिराये लागल
केहू बा कविता क पढ़वइय्या, अब त गला झुराये लागल
देहिं गलवले उपजल कविता, हाड़ पसवले उपजल कविता
मुक्तिबोध आ कसम निराला, खून जरवले उपजल कविता
केहू बा अइसन कविता चाहीं ?