खेते से जब खटिके – पंकज तिवारी

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खेते से जब खटिके – पंकज तिवारी

खेते से जब खटिके फलाने, अपने घरे में आवेले।
लेइ लोटा में पानी दुल्हनिया, गुड़े के साथे धावेले।।

घुट-घुट एक्कइ सांस में पूरा लोटा चाटि गयेन भैया,
टक-टक एकटक दुलहिन देखे केतना थका रहेन सैंया।
तर-तर चूये तन से पसीना गमछा लेइ झुरवावेले।
खेते से जब खटिके फलाने, अपने घरे में आवेले।।

गोरू बछरू के कांटा कोयरे के करत जुगाड़ रहिन,
दुलहिन बड़ी गुनागर रहलीं खटि के खाना खात रहिन।
एहर-ओहर के कानाफूसी में ना समय गंवावेले।
खेते से जब खटिके फलाने अपने घरे में आवेले।।

रोज समय से छोटके के ऊ भेजत रहिन सकूले में,
बड़का लइका बहीपार बा खटइ न कब्भों भूले में।
अंगुरी धइ के रोज सिखावंइ समझ में नइखे आवेले।
खेते से जब खटिके फलाने अपने घरे में आवेले।।

आज दुलहिनों गुस्से में बा पारा चढ़ल अकाश में,
बड़का गोल बा दिना भरेसे बहुतइ पिटे भड़ास में।
संझा कि जब लउटा बड़का बेलना पीठिया साजेले।
खेते से जब खटिके फलाने अपने घरे में आवले।।

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