धन-कटनी/ अमरेन्द्र जी
खेतवा की आरी आरी,सुनरी सुग्घरी नारी,
पीयरि पहिरी सारी,छमके छमकि छमक।
हँसुआ से काटि धान,गावेली मधुर गान,
कर के कंगन दूनो,खनके खनकि खनक।।
लामे लामे पारि धरे लामे पलिहारि धरे,
गुर्ही करे बोझा बान्हे,धनिया चमकि चमक।
पुरुआ बयार बहे,रूपगर नार लागे,
गते से गुजर जाये,रहिया छनकि छनक।।
पिया खरिहानी करी,आँटी अरु बोझाधरी,
सभके ही सोझाधरी, भरि के अंकवारि धरि।
चानीझरी रानीझरी,नारी रतनारी झरी,
हीरा पन्ना मोतीझरी,सोनाचुर बखारि भरि।।
चूरा बने पोहा बने,खीर के कटोरा बने,
जन गन मन सभ, हरसतु हुलसि करि।
बहरी अंजोर करे, भीतरी बिभोर करे
सभ मिली हँसेलनि,उजसतु उजसि उर।।
सजनी बिचार करे,मन मनुहार करे,
पिया से गोहार करे,माँगतु नथ लटकन।
सजना बाजार करे,जातु है सोनार घरे,
निक से निरेखि करि,कीनतु धन सुबरन।।