बरखा के दिन / बच्चन पाठक ‘सलिल’
बरखा के रिमझिम फुहार, अंग-अंग सहला गइल
बकुलन के उज्जर कतार, तन-मन बहला गइल।
पर्वत पर रूई के मेघ,
सुनेले यक्षी-संदेश ;
धीरे से पुरवैया मीत,
छुएले गोरी के केश।
अमृत भरल जल-धार, धानन के नहला गइल।
नदियन के आइल उठान,
कदराइल झीलन के देह ;
बोरो जे उगल अकास,
देखि रहल माटी सस्नेह।
टूटल बा मोतिन के हार, गाँवन के अगरा गइल।