सावन सुहागन/ ब्रजेन्द्र कुमार सिन्हा
सावन सुहागन
निरखे अंचरवा,
चल भइली विरहिन – भेष ?
मास भदउआ
ना लागे भयावन
विरहिन उठे ना कलेश.
धानी रे चदरिया
रंग दुपहरिया
धरी ले ली जोगिनी के भेष.
सुपुली के सोनवा
भइले सपनवा
चल पिया बसे परदेस.
हरी-हरी चुड़िया
हरी रे चुनरिया
मिली नाहीं अब एही देश.