आदमी आदमी के खाई तनिको ना सकुचाई/ विमल कुमार
मनई के देहि छोट होखे
लाद बढ़ल खुब जाता,
खा गइले सभ चिरई चुरूंग
बिरिछो कइले नपाता।
बदरी के बुढ़ारी आईल
उठल बइठल न जाये,
सुरूज आग उगिला तारे
पानियो छटपटाये,
धरती के तन झुरा झुरा के
फाट गइल बेवाई,
आदमी आदमी के खाई
तनिको ना सकुचाई।
मुदई मोखालिफ के नाम प
हिते लगावे फंदा,
देह जान अब कइसे बांची
खूने बा जब गंदा।
पसर रहल बा रोग कुकरम
बनि के तगड़ा धंधा,
सभ कुछ देखियो के लोगवा
बनल आँख के अंधा,
पइसे के अब महल पिटाता
इजत प दागि लगाई,
आदमी आदमी के खाई
तनिको ना सकुचाई।
केहु अफरे केहु लाद ध के
जाति पाति में बँटल,
केहु जोंक केहु अँठई बन
चुसे खातिर बा सटल।
लसरी निकाल मानवता के
फँसरी पा लटकावे,
टुपुना चुआ के उ घरियारी
ओठ प जीभ फिरावे।
गोटा ता गोटा होखेला
भतियो प जीभ चलाई,
आदमी आदमी के खाई
तनिको ना सकुचाई।
बाचल खुचल हरियरियो के
मोटरी अब बन्हाता,
खिलल जिंदगी के बगइचा
तड़प तड़प मुरझाता।
स्वारथ के सूनामी आके
सभ कुछ लिल जाई
पथले के मकान सभ लउकी
सभ सरजांव तँवाई।
लरिका नोचिहे स माई के
मइयो जमते चबाई,
आदमी आदमी के खाई
तनिको ना सकुचाई।