जेहल में बंद बा/ दुर्गेन्द्र अकारी

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जेहल में बंद बा/ दुर्गेन्द्र अकारी

जेकरा कम्मर ना, चट्ट, बरतन बा,
रे लोगवा, जेहल में बंद बा ना!

केहू-केहू से बरतन ले के, कसहूं करत भोजन बा
जेल जीवन प ध्यान ना देता, केहिविधि नर तन बा।

साग मूली लउका के भाजी, ओहि में देले बैंगन बा
भात कांच अधकच्चू रोटी, गुड़ चना मूल धन बा।

तेरह रोग के एके दवाई, उहो ना मिलत खतम बा
एक रही इमली के पाता, एकरे प जीवन-मरन बा।

जाड़ ठाढ़ गिरे ना सहाता, पछेया बहत कनकन बा
सुते-बइठे के जगहा ना, विपत में परल बदन बा।

गन्दा बन्दी के संग शासक, रखले नित रसम बा
बात भइल दरखास दिआइल, तबो ना परिवर्तन बा।

एक बात – एकता के बले, पूरा होई जो मन बा
कहे कवि दुर्गेन्द्र ‘अकारी, टूटिहें गेट परन बा।

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जेहल में बंद बा/ दुर्गेन्द्र अकारी - भोजपुरी मंथन