संस्कार/ तारकेश्वर राय ‘तारक’
सावित्री भउजी बड़ी खुश बाड़ी। आखिर खुश काहें ना रहीहन? आजु उनकर छोटकी ननद के बियाह ह। बियाह बनारस के होटल से होता। एहिजा चूल्हा-चउका से छुट्टी त बड़ले बा, कुछउ करहूँ के नइखे। खलिहे सज-सँवर के, गलचउरन क के समय बितावे के बा, किसिम-किसिम के पकवान बा से अलगे। सभे बड़ी खुश बा एह नवका रिवाज से।
आजु सबकर नजर सावित्री भउजी पर से हटते नइखे। हर अदिमी उनकर नवका रूप के देख के अचरज में बा। हरमेसे चोटी बन्हले, कपारे लुग्गा राखि के साधारण साज-सँवार में रहे वाली भउजी आज कजराही आँख अउरी सुन्नर मेकअप में, कान्हे अधपल्लू रखले बहुते फबत रहली, सभकर कहनाम ईहे रहे। बरिसहन बाद भउजियो आपन रूप के बड़वागी सुनि के मारे खुशी के उड़त रहली।
तब ले बबलुआ धउरल आइल आ कहलस – “मम्मी, मम्मी, बाबा आवताड़न।” बबलुवा के ई ड्यूटी रहल ह कि बाबा के आवते जेतना हाली हो सके, मम्मी के एकर सूचना दे जाय।
भउजी सोचली कि बरिसहन बाद, हजारन रोपेया खरचा कइला पऽ, बड़ा भाग से ई मोका मिलल बा त ई सुन्नर रूप भेटाइल बा। ऊ दूसर गोतिनिन का सङ्हे बतियावे में बाझे के बहाने बबलुवआ के बात के अनसुन कइ दिहली। बबलुओ देखलस कि मम्मी सुनत नइखी त दूसर लइकन का सङ्हे खेले में बाझ गइल।
पीछे ठाड़ बाबुओजी ना देखे के बहाना कइलन। त’ले टाटावाली फुआ के ई सब लउकल। ऊ भउजी के रूप देख के कहली- “अरे सावित्री, आज तू त बहुते सुन्नर लागत बाड़ू । केशो बड़ा नीक बन्हाइल बा, बाकिर तोहरो बार अब पाके लागल दुलहिन।” अतिना कहते फुआ आगे का ओरि सरक गइली। फुआ के बात सुनते भउजी के चेहरा पर चिंता के रेख उभरि आइल। ऊ जल्दी-जल्दी वॉशरूम का ओरि बढ़ गइली। जा के शीशा में आपन रूप निहरली आ देखली कि फुआजी ठीके कहत रहली हँ ।
बाबुजी देखलन, सावित्री भउजी कपारे लुग्गा रखले वॉशरूम से बहरी निकलत रहली। ऊ निकलते बाबूजी का ओरि बढ़ गइली आ कहली- “ओह् बाबुजी? रउआ कब अइनी हँ ?”
ऊ बाबूजी का गोड़ छुवे ख़ातिर झुक गइल रहली।
बाबुजी मुस्कियात सोचे लगलन, संस्कार त कपार प लुग्गा ना रखवा पवलस बाकिर एगो अधपक बार केतना बरियार काज क गइल जे सरकत लुग्गा फेरु खुशी-खुशी माथे जा चढ़ल। ऊ सावित्री भउजी के चेहरा पर आवत-जात रंग के बाँचे के कोशिश करे लगलन ।